Saturday, November 29, 2014

परिवार में रहते हुए भी बना जा सकता है साधु

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http://www.amarujala.com/news/spirituality/meditation/you-can-find-god-with-live-in-family/

GOOD ARTICLE 

खुद को दिलासा देने के लिए कहें अथवा अफसोस जताने के लिए लेकिन बहुत से लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कहेंगे कि हम घर परिवार वाले लोग हैं सब कुछ छोड़कर साधु तो नहीं बन सकते।

जबकि, सच यह है कि साधु बनने के लिए परिवार और दुनिया से विमुख होने की जरूरत नहीं है। साधु तो घर परिवार में रहते हुए, पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी बना जा सकता है।

साधु का मतलब वन में निवास करने वाला नहीं है, साधु का अर्थ है साधना करने वाला। साधना है तात्पर्य है मन, वाणी, इन्द्रिय भोग, काम और क्रोध को अपने वश में रखना न कि इनके वश में हो जाना।

जिनका मन घर परिवार में रहते हुए भी नियंत्रण में है, काम और क्रोध से दूषित नहीं है वह सांसारिक जीवन में कहीं भी रहे साधु कहलाने योग्य है।

नारद पुराण में एक प्रसंग है कि ब्रह्मा जी ने आठ मानस पुत्रों को जन्म दिया। इनमें नारद मुनि भी एक थे। ब्रह्मा जी के सात पुत्रों ने विवाह करके गृहस्थ जीवन बिताना स्वीकार कर लिया। लेकिन नारद मुनि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से मना कर दिया।

ब्रह्मा जी को इस बात से बड़ा क्रोध हुआ और नारद जी को शाप दे दिया। अगर गृहस्थ जीवन पाप होता और वैराग्य पुण्य तो ब्रह्मा जी नारद को नहीं अन्य सात पुत्रों को शाप देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

वास्तव में गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधु बने रहना सबसे कठिन तपस्या है। सांसारिक जीवन का त्याग करके कर्म से मुक्त होने का प्रयास करना पाप है। यही कारण है कि प्राचीन काल के कई सिद ऋषि मुनियों ने विवाह किया।

ईश्वर मनुष्य को वैवाहिक जीवन और गृहस्थी का महत्व समझाना चाहता है न कि गृहस्थी से भागने की बात सीखाता है। अगर वह ऐसा चाहता तो हर देवी देवता अलग होते, सभी अविवाहित होते।

लेकिन ऐसा नहीं है शिव-पार्वती, विष्णु लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण-रूक्मिणी सभी युगल हैं, यही बताने के लिए कि संसार त्यागने के लिए नहीं है। गीता में भगवान ने कहा कि जीव कर्म बंधन में बंध हुआ है और उसे बार-बार कर्म में बंधकर आवागमन में उलझना है।

जो व्यक्ति ईश्वर के इस विधान को समझकर कर्म करता हुए साधु बना रहता है वास्तव में वही परमगति और मुक्ति का भागी होता है। परिवार और कर्तव्य का त्याग करने वाला नहीं। जो कर्तव्य से भागने का प्रयास करता है वह बार-बार आवागमन के चक्र में घूमता रहता है।



अद्भुत चिह्न - ओ३म्‌

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AN ARTICLE FROM BHARAT DISCOVERY FOR THE BENEFIT OF OUR READERS--

http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A5%90



ओ३म्‌ की ध्वनि का सभी सम्प्रदायों में महत्त्व है। ॐ हिन्दू धर्म का प्रतीक चिह्न ही नहीं बल्कि हिन्दू परम्परा का सबसे पवित्र शब्द है। हमारे सभी वेदमंत्रों का उच्चारण भी ओ३म्‌ से ही प्रारंभ होता है, जो ईश्र्वरीय शक्ति की पहचान है। परमात्मा का निज नाम ओ३म्‌ है। अंग्रेज़ी में भी ईश्र्वर के लिए सर्वव्यापक शब्द का प्रयोग होता है, यही सृष्टि का आधार है। यह सिर्फ़ आस्था नहीं, इसका वैज्ञानिक आधार भी है। प्रतिदिन ॐ का उच्चारण न सिर्फ़ ऊर्जा शक्ति का संचार करता है, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाकर कई असाध्य बीमारियों से दूर रखने में मदद करता है। आध्यात्म में ॐ का विशेष महत्त्व है, वेद शास्त्रों में भी ॐ के कई चमत्कारिक प्रभावों का उल्लेख मिलता है। आज के आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी शोध के मध्यम से ॐ के चमत्कारिक प्रभाव की पुष्टी की है। पाश्चात्य देशों में भारतीय वेद पुराण और हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय संस्कृति और परम्परा काफ़ी चर्चाओं और विचार विमर्श का केन्द्र रहे हैं दूसरी ओर वर्तमान की वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रेरणा स्रोत भारतीय शास्त्र और वेद ही रहे हैं, हलाकि स्पष्ट रूप से इसे स्वीकार करने से भी वैज्ञानिक बचते रहे हैं। योगियों में यह विश्वास है कि इसके अंदर मनुष्य की सामान्य चेतना को परिवर्तित करने की शक्ति है। यह मंत्र मनुष्य की बुद्धि व देह में परिवर्तन लाता है। ॐ से शरीर, मन, मस्तिष्क में परिवर्तन होता है और वह स्वस्थ हो जाता है। ॐ के उच्चारण से फेफड़ों में, हृदय में स्वस्थता आती है। शरीर, मन और मस्तिष्क स्वस्थ और तनावरहित हो जाता है। ॐ के उच्चारण से वातावरण शुद्ध हो जाता है।

सभी धर्मो में ॐ

ओ३म् (ॐ) नाम में हिन्दूमुस्लिम या ईसाई जैसी कोई बात नहीं है। यह सोचना कि ओ३म् किसी एक धर्म की निशानी है, ठीक बात नहीं, अपितु यह तो तब से चला आया है जब कोई अलग धर्म ही नहीं बना था। बल्कि ओ३म् तो किसी ना किसी रूप में सभी मुख्य संस्कृतियों का प्रमुख भाग है। यह तो अच्छाई, शक्ति, ईश्वर भक्ति और आदर का प्रतीक है। उदाहरण के लिए अगर हिन्दू अपने सब मन्त्रों और भजनों में इसको शामिल करते हैं तो ईसाई और यहूदी भी इसके जैसे ही एक शब्द आमेनका प्रयोग धार्मिक सहमति दिखाने के लिए करते हैं। मुस्लिम इसको आमीन कह कर याद करते हैं, बौद्ध इसे ओं मणिपद्मे हूं कह कर प्रयोग करते हैं। सिख मत भी इक ओंकार अर्थात एक ओ३म के गुण गाता है। अंग्रेज़ी का शब्द omni, जिसके अर्थ अनंत और कभी ख़त्म न होने वाले तत्त्वों पर लगाए जाते हैं (जैसे omnipresent, omnipotent) भी वास्तव में इस ओ३म् शब्द से ही बना है। इतने से यह सिद्ध है कि ओ३म् किसी मत, मज़हब या सम्प्रदाय से न होकर पूरी इंसानियत का है। ठीक उसी तरह जैसे कि हवापानीसूर्य, ईश्वर, वेद आदि सब पूरी इंसानियत के लिए हैं न कि केवल किसी एक सम्प्रदाय के लिए।

अद्भुत चिह्न

ओम का यह चिह्न 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि 'ॐ' को दुनिया के सभी मंत्रों का सार कहा गया है। यह उच्चारण के साथ ही शरीर पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ती है। भारतीय सभ्यता के प्रारंभ से ही ओंकार ध्वनि के महत्त्व से सभी परिचित रहे हैं। शास्त्रों में ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है। कई बार मंत्रों में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिसका कोई अर्थ नहीं होता लेकिन उससे निकली ध्वनि शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ती है।[1]

उच्चारण

हिन्दू या सनातन धर्म की धार्मिक विधियों के प्रारंभ में 'ॐ' शब्द का उच्चारण होता है, जिसकी ध्वनि गहन होती है। ॐ का हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी महत्त्व है। ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक़्त 'ओ' पर ज़्यादा ज़ोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। प्राचीन भारतीय धर्म विश्वास के अनुसार ब्रह्मांड के सृजन के पहले प्रणव मंत्र का उच्चारण हुआ था। इस मंत्र का प्रारंभ है अन्त नहीं। इसके अनेकों चमत्कार है। प्रत्येक मंत्र के पूर्व इसका उच्चारण किया जाता है। योग साधना में इसका अधिक महत्त्व है। इसके निरंतर उच्चारण करते रहने से सभी प्रकार के मानसिक रोग मिट जाते हैं। ॐ को अनाहत ध्वनि (नाद) कहते हैं जो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और इस ब्रह्मांड में सतत गूँजता रहता है। इसके गूँजते रहने का कोई कारण नहीं। सामान्यत: नियम है कि ध्‍वनी उत्पन्न होती है किसी की टकराहट से, लेकिन अनाहत को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीज़ों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।[2] साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है, वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है, ॐ का उच्चारण करते रहना।
Blockquote-open.gif जो व्यक्ति ॐ और ब्रह्म के पास रहता है, वह नदी के पास लगे वृक्षों की तरह है जो कभी नहीं मुर्झाते। -- हिन्दू नियम पुस्तिका। Blockquote-close.gif
क्या करें ?
  • ओम - प्रातः उठकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्त संचार व्यवस्थित होगा।
  • ओम नमो - ओम के साथ नमो शब्द के जुड़ने से मन और मस्तिष्क में नम्रता के भाव पैदा होते हैं। इससे सकारात्मक ऊर्जा तेजी से प्रवाहित होती है।
  • ओम नमो गणेश - गणेश आदि देवता हैं जो नई शुरुआत और सफलता का प्रतीक हैं। अत: ओम गं गणपतये नम: का उच्चारण विशेष रूप से शरीर और मन पर नियंत्रण रखने में सहायक होता है।
ॐ का भाषा अर्थ
वेद शास्त्रों में ॐ
  • त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक - ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है - अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्माविष्णु औरमहेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।
  • ओ, उ और म - उक्त तीन अक्षरों वाले शब्द की महिमा अपरम्पार है। यह नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र को जगाता है। ओ३म्‌ शब्द तीन अक्षरों एवं दो मात्राओं से मिलकर बना है जो वर्णमाला के समस्त अक्षरों में व्याप्त है। पहला शब्द है ‘अ’ जो कंठ से निकलता है। दूसरा है ‘उ’ जो हृदय को प्रभावित करता है। तीसरा शब्द ‘म्‌’ है जो नाभि में कम्पन करता है। इस सर्वव्यापक पवित्र ध्वनि के गुंजन का हमारे शरीर की नस नाडिय़ों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है विशेषकर मस्तिष्क, हृदय व नाभि केंद्र में कम्पन होने से उनमें से ज़हरीली वायु तथा व्याप्त अवरोध दूर हो जाते हैं, जिससे हमारी समस्त नाड़ियाँ शुद्ध हो जाती हैं। जिससे हमारा आभामण्डल शुद्ध हो जाता है और हमारे अन्दर छिपी हुई सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होती व आत्म अनुभूति होती है।
  • ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है। जिनका उच्चारण एक के बाद एक होता है। ओ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है, जिसके अनुसार साधक या योगी इसका उच्चारण ध्यान करने के पहले व बाद में करता है। ॐ 'ओ' से प्रारंभ होता है, जो चेतना के पहले स्तर को दिखाता है। चेतना के इस स्तर में इंद्रियाँ बहिर्मुख होती हैं। इससे ध्यान बाहरी विश्व की ओर जाता है। चेतना के इस अभ्यास व सही उच्चारण से मनुष्य को शारीरिक व मानसिक लाभ मिलता है। आगे 'उ' की ध्वनि आती है, जहाँ पर साधक चेतना के दूसरे स्तर में जाता है। इसे तेजस भी कहते हैं। इस स्तर में साधक अंतर्मुखी हो जाता है और वह पूर्व कर्मों व वर्तमान आशा के बारे में सोचता है। इस स्तर पर अभ्यास करने पर जीवन की गुत्थियाँ सुलझती हैं व उसे आत्मज्ञान होने लगता है। वह जीवन को माया से अलग समझने लगता है। हृदय, मन, मस्तिष्क शांत हो जाता है। 'म' ध्वनि के उच्चार से चेतना के तृतीय स्तर का ज्ञान होता है, जिसे 'प्रज्ञा' भी कहते हैं। इस स्तर में साधक सपनों से आगे निकल जाता है व चेतना शक्ति को देखता है। साधक स्वयं को संसार का एक भाग समझता है और इस अनंत शक्ति स्रोत से शक्ति लेता है। इसके द्वारा साक्षात्कार के मार्ग में भी जा सकते हैं। इससे साधक के शरीर, मन, मस्तिष्क के अंदर आश्चर्यजनक परिवर्तन आता है। शरीर, मन, मस्तिष्क, शांत होकर तनावरहित हो जाता है।
ॐ उच्चारण की विधि
  • प्राणायाम या कोई विशेष आसन करते वक़्त इसका उच्चारण किया जाता है। केवल प्रणव साधना के लिए ॐ (ओम्) का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। साधक बैठने में असमर्थ हो तो लेटकर भी इसका उच्चारण कर सकता है। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं।
  • ॐ ज़ोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। बोलने की जरूरत जब समाप्त हो जाए तो इसे अपने अंतरमन में सुनने का अभ्यास बढ़ाएँ। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं। उच्चारण करते वक़्त लय का विशेष ध्‍यान रखें।
  • इसका उच्चारण सुप्रभात या संध्याकाल में ही करें। उच्चारण और आसन करने के लिए कोई एक एकांत खुला स्थान नियुक्त हो। हर कहीं इसका उच्चारण न करें। उच्चारण करते वक़्त पवित्रता और सफाई का विशेष ध्यान रखें।
  • किसी भी ध्वनि का प्रभाव तभी उत्पन्न होता है जब उसे विशेष लयबद्धता व श्रद्धा के साथ व्यक्त किया जाये। ‘ओ३म्‌’ ध्वनि करते हुए स्वर की मधुरता तथा उच्चारण करे तब सब ओर से विकृतियों को हटाकर एकाग्रचित होकर के उस प्रभु का प्रेम, श्रद्धा और दृढ़ विश्वास से ध्यान करें। ऐसी भावना बनाये कि वही हमारा सच्चा पिता, माता, भाई, बंधु हमारा सर्वस्व, हमारे जीवन का आधार है, अच्छा ही करता है दुःख द्वारा भी हमारे पाप कर्मों का शमन करता है व हमें पाप के बोझ से हल्का करता है। इसलिए दुःख आने पर भी उसका ही धन्यवाद करें।
  • ओ३म् के उच्चारण के लिए किसी निश्चित स्थान पर एकांत जगह पर आसन बिछाकर पदमासन, सुखासन में बैठे। हाथ ज्ञान मुद्रा में घुटनों पर रखे। नेत्र कोमलता से बंद करें तथा दो-तीन बार गहरे लम्बे श्वास लें और श्वास गहरा भरे, बिना मुंह खोलकर व बोलकर ओ का उच्चारण करें। कंठ से स्पंदन हो और इसके बाद होठ बंद करते हुए म का गुंजन करे। धीरे-धीरे लंबा गुंजन का अभ्यास करे। जब तक आनन्द मिलता रहे तो उस आसन को करते रहो। इसे नियमित श्रद्धाभाव और प्रसन्न-चित्त होकर करें। ब्रह्म-मुहूर्त में करने पर आनन्द मिलता है। अंत में कुछ देर के लिए शांत बैठे। इससे शरीर को अनेक प्रकार से लाभ होता है तथा शरीर के कोषाणुओं का नव निर्माण होता है। शरीर स्वस्थ, सुंदर तथा पवित्र बनता है। कंठ नली में स्वर तन्तु की ट्यूनिंग होती है, फेफडों की कार्य क्षमता बढती है। आसनों के करने से अनेक प्रकार के विकार दूर होते हैं तथा रक्त की शुद्धि होती है। हृदय को कम काम करना पडता है। उससे विश्राम भी मिलता है। पाचन क्रिया सुधरती है तथा निकासन प्रणाली सुचारु रूप से कार्य करती है। ग्रंथियों से संतुलित स्त्राव निकलता है। मन की शक्ति बढती है, मन हल्का, प्रसन्न व पवित्र बनता है। एक मंगलमय वातावरण निर्मित होता है तथा हर प्रकार का तनाव दूर होता है। दमा, रक्तचाप आदि ठीक हो जाते हैं। नर को नारायण की ओर बढाने की क्षमता ओंकार ध्वनि में है। बुद्धि तीव्र, स्मरण शक्ति का विकास तथा निर्णायक क्षमता की वृद्धि होती है और तन, मन, बुद्धि को स्वस्थ रखती है।

ॐ उच्चारण से लाभ

विभिन्न भाषाओं में ॐ
  • संसार की समस्त ध्वनियों से अधिक शक्तिशाली, मोहक, दिव्य और सर्वश्रेष्ठ आनंद से युक्त नाद ब्रह्म के स्वर से सभी प्रकार के रोग और शोक मिट जाते हैं। इससे हमारे शरीर की ऊर्जा संतुलन में आ जाती है। इसके संतुलन में आने पर चित्त शांत हो जाता है। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होती है। इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलती है। व्यर्थ के मानसिक द्वंद्व, तनाव और नकारात्मक विचार मिटकर मन की शक्ति बढ़ती है। मन की शक्ति बढ़ने से संकल्प और आत्मविश्वास बढ़ता है। सम्मोहन साधकों के लिए इसका निरंतर जाप करना उत्तम है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं।
  • बीमारी दूर भगाएँ :-- तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्त्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं। सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
  • ॐ उच्चारण से शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव  :-- शब्दों से उत्पन्न ध्वनि से श्रोता के शरीर और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पड़ता है। बोलने वाले के मुँह से शब्द निकलने से पहले उसके मस्तिष्क से विद्युत तरंगें निकलती हैं। इन्हें श्रोता का मस्तिष्क ग्रहण करने की चेष्टा करता है। उच्चारित शब्द श्रोता के कर्ण-रंध्रों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचते हैं। प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
  • ओ३म् के उच्चारण / ध्वनि से मनुष्य का कई शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक विकास होता हैं। साथ ही इसके अभ्यास से अनेक प्रकार के रोगों से भी मुक्ति मिलती है। यहाँ तक कि यदि आपको अर्थ भी मालूम नहीं तो भी इसके उच्चारण से शारीरिक लाभ तो होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। ओ३म् इस ब्रह्माण्ड में उसी तरह भर रहा है कि जैसे आकाश। ओ३म् का उच्चारण करने से जो आनंद और शान्ति अनुभव होती है, वैसी शान्ति किसी और शब्द के उच्चारण से नहीं आती। यही कारण है कि सब जगह बहुत लोकप्रिय होने वाली आसन प्राणायाम की कक्षाओं में ओ३म के उच्चारण का बहुत महत्त्व है। बहुत मानसिक तनाव और अवसाद से ग्रसित लोगों पर कुछ ही दिनों में इसका जादू सा प्रभाव होता है। यही कारण है कि आजकल डॉक्टर आदि भी अपने मरीज़ों को आसन प्राणायाम की शिक्षा देते हैं।
  • ओ३म् के उच्चारण के शारीरिक लाभ -
  1. अनेक बार ओ३म् का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
  2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ओ३म् के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
  3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
  4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
  5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
  6. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
  7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
  8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी।
  9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है। इत्यादि इत्यादि।
  • ओ३म् के उच्चारण से मानसिक लाभ -
  1. जीवन जीने की शक्ति और दुनिया की चुनौतियों का सामना करने का अपूर्व साहस मिलता है।
  2. इसे करने वाले निराशा और गुस्से को जानते ही नहीं।
  3. प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल और नियंत्रण होता है। परिस्थितियों को पहले ही भांपने की शक्ति उत्पन्न होती है।
  4. आपके उत्तम व्यवहार से दूसरों के साथ सम्बन्ध उत्तम होते हैं। शत्रु भी मित्र हो जाते हैं।
  5. जीवन जीने का उद्देश्य पता चलता है जो कि अधिकाँश लोगों से ओझल रहता है।
  6. इसे करने वाला व्यक्ति जोश के साथ जीवन बिताता है और मृत्यु को भी ईश्वर की व्यवस्था समझ कर हँस कर स्वीकार करता है।
  7. जीवन में फिर किसी बात का डर ही नहीं रहता।
  8. आत्महत्या जैसे कायरता के विचार आस पास भी नहीं फटकते। बल्कि जो आत्महत्या करना चाहते हैं, वे एक बार ओ३म् के उच्चारण का अभ्यास 4 दिन तक कर लें। उसके बाद खुद निर्णय कर लें कि जीवन जीने के लिए है कि छोड़ने के लिए। 
  • ओ३म् के उच्चारण के आध्यात्मिक (रूहानी) लाभ -
  1. इसे करने से ईश्वर / अल्लाह से सम्बन्ध जुड़ता है और लम्बे समय तक अभ्यास करने से ईश्वर/अल्लाह को अनुभव (महसूस) करने की ताकत पैदा होती है।
  2. इससे जीवन के उद्देश्य स्पष्ट होते हैं और यह पता चलता है कि कैसे ईश्वर सदा हमारे साथ बैठा हमें प्रेरित कर रहा है।
  3. इस दुनिया की अंधी दौड़ में खो चुके खुद को फिर से पहचान मिलती है। इसे जानने के बाद आदमी दुनिया में दौड़ने के लिए नहीं दौड़ता किन्तु अपने लक्ष्य के पाने के लिए दौड़ता है।
  4. इसके अभ्यास से दुनिया का कोई डर आसपास भी नहीं फटक सकता मृत्यु का डर भी ऐसे व्यक्ति से डरता है क्योंकि काल का भी काल जो ईश्वर है, वो सब कालों में मेरी रक्षा मेरे कर्मानुसार कर रहा है, ऐसा सोच कर व्यक्ति डर से सदा के लिए दूर हो जाता है। जैसे महायोगी श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध के वातावरण में भी नियमपूर्वक ईश्वर का ध्यान किया करते थे। यह बल व निडरता ईश्वर से उनकी निकटता का ही प्रमाण है।
  5. इसके अभ्यास से वह कर्म फल व्यवस्था स्पष्ट हो जाती है कि जिसको ईश्वर ने हमारे भले के लिए ही धारण कर रखा है। जब पवित्र ओ३म् के उच्चारण से हृदय निर्मल होता है तब यह पता चलता है कि हमें मिलने वाला सुख अगर हमारे लिए भोजन के समान सुखदायी है तो दुःख कड़वा होते हुए भी औषधि के समान सुखदायी है जो आत्मा के रोगों को नष्ट कर दोबारा इसे स्वस्थ कर देता है। इस तरह ईश्वर के दंड में भी उसकी दया का जब बोध जब होता है तो उस परम दयालु जगत माता को देखने और पाने की इच्छा प्रबल हो जाती है और फिर आदमी उसे पाए बिना चैन से नहीं बैठ सकता। इस तरह व्यक्ति मुक्ति के रास्तों पर पहला क़दम धरता है।

ॐ का वैज्ञानिक महत्त्व

  • आइंस्टाइन यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंस्टाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
  • खगोल वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया है कि हमारे अंतरिक्ष में पृथ्वी मण्डल, सौर मण्डल, सभी ग्रह मण्डल तथा अनेक आकाशगंगाएं, लगातार ब्रह्माण्ड का चक्कर लगा रही हैं। ये सभी आकाशीय पिण्ड कई हज़ार मील प्रति सेकेण्ड की गति से अनंत की ओर भागे जा रहे हैं, जिससे लगातार एक कम्पन, एक ध्वनि अथवा शोर उत्पन्न हो रहा है इसी ध्वनि को हमारे तपस्वी और ऋषि - महर्षियों ने अपनी ध्यानावस्था में सुना। जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ब्रह्मानाद अथवा ॐ कहा । यानी अंतरिक्ष में होने वाला मधुर गीत ‘ओ३म्‌’ ही अनादिकाल से अनन्त काल तक ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ओ३म्‌ की ध्वनि या नाद ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक ऊर्जा के रूप में फैला हुआ है जब हम अपने मुख से एक ही सांस में ओ३म्‌ का उच्चारण मस्तिष्क ध्वनि अनुनाद तकनीक से करते हैं तों मानव शरीर को अनेक लाभ होते हैं और वह असीम सुख, शांति व आनन्द की अनुभूति करता है।

  • ओ३म्‌ के संबंध में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ओ३म्‌ शब्द की महिमा का कोई वैज्ञानिक आधार हैं? क्या इसके उच्चारण से इस असार संसार में भी कुछ लाभ है? इस संबंध में ब्रिटेन के एक साईटिस्ट जर्नल ने शोध परिणाम बताये हैं जो यहां प्रस्तुत हैं। रिसर्च एंड इंस्टीट्‌यूट ऑफ न्यूरो साइंस के प्रमुख प्रोफ़ेसर जे. मार्गन और उनके सहयोगियों ने सात वर्ष तक ‘ओ३म्‌’ के प्रभावों का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने मस्तिष्क और हृदय की विभिन्न बीमारियों से पीडि़त 2500 पुरुषो और 200 महिलाओं का परीक्षण किया। इनमें उन लोगों को भी शामिल किया गया जो अपनी बीमारी के अन्तिम चरण में पहुँच चुके थे। इन सारे मरीज़ों को केवल वे ही दवाईयां दी गई जो उनका जीवन बचाने के लिए आवश्यक थीं। शेष सब बंद कर दी गई। सुबह 6 - 7 बजे तक यानी कि एक घंटा इन लोगों को साफ, स्वच्छ, खुले वातावरण में योग्य शिक्षकों द्वारा ‘ओ३म्‌’ का जप कराया गया। इन दिनों उन्हें विभिन्न ध्वनियों और आवृतियो में ‘ओ३म्‌’ का जप कराया गया। हर तीन माह में हृदय, मस्तिष्क के अलावा पूरे शरीर का ‘स्कैन’ कराया गया। चार साल तक ऐसा करने के बाद जो रिपोर्ट सामने आई वह आश्चर्यजनक थी। 70 प्रतिशत पुरुष और 85 प्रतिशत महिलाओं से ‘ओ३म्‌’ का जप शुरू करने के पहले बीमारियों की जो स्थिति थी उसमें 90 प्रतिशत कमी दर्ज की गई। कुछ लोगों पर मात्र 20 प्रतिशत ही असर हुआ। इसका कारण प्रोफ़ेसर मार्गन ने बताया कि उनकी बीमारी अंतिम अवस्था में पहुंच चुकी थी। इस प्रयास से यह परिणाम भी प्राप्त हुआ कि नशे से मुक्ति भी ‘ओ३म्‌’ के जप से प्राप्त की जा सकती है। इसका लाभ उठाकर जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है। ॐ को लेकर प्रोफ़ेसर मार्गन कहते हैं कि शोध में यह तथ्य पाया कि ॐ का जाप अलग अलग आवृत्तियों और ध्वनियों में दिल और दिमाग के रोगियों के लिए बेहद असर कारक है यहाँ एक बात बेहद गौर करने लायक़ यह है जब कोई मनुष्य ॐ का जाप करता है तो यह ध्वनि जुबां से न निकलकर पेट से निकलती है यही नहीं ॐ का उच्चारण पेट, सीने और मस्तिष्क में कम्पन पैदा करता है विभिन्न आवृतियो (तरंगों) और ‘ओ३म्‌’ ध्वनि के उतार चढ़ाव से पैदा होने वाली कम्पन क्रिया से मृत कोशिकाओं को पुनर्जीवित कर देता है तथा नई कोशिकाओं का निर्माण करता है रक्त विकार होने ही नहीं पाता। मस्तिष्क से लेकर नाक, गला, हृदय, पेट और पैर तक तीव्र तरंगों का संचार होता है। रक्त विकार दूर होता है और स्फुर्ती बनी रहती है। यही नहीं आयुर्वेद में भी ॐ के जाप के चमत्कारिक प्रभावों का वर्णन है। इस तरह के कई प्रयोगों के बाद भारतीय आध्यात्मिक प्रतीक चिह्नों को के प्रति पश्चिम देशों के लोगों में भी खुलापन देखा गया।[3]
  • अभी हाल ही में हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हारबर्ट बेन्सन ने अपने लबे समय के शोध कार्य के बाद ‘ओ३म्‌’ के वैज्ञानिक आधार पर प्रकाश डाला है। थोड़ी प्रार्थना और ओ३म्‌ शब्द के उच्चारण से जानलेवा बीमारी एड्‌स के लक्षणों से राहत मिलती है तथा बांझपन के उपचार में दवा का काम करता है। इसके अलावा आप स्वयं ‘ओ३म्‌’ जप करके ओ३म्‌ ध्वनि के परिणाम देख सकते हैं। इसके जप से सभी रोगों में लाभ व दुष्कर्मों के संस्कारों को शमन होता है। अतः ओ३म्‌ की चमत्कारिक ध्वनि का उच्चारण (जाप) यदि मनुष्य अटूट श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के साथ करे तो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर जीवन को सार्थक कर सकता है।


Friday, November 28, 2014

गौ माता के शरीर में सारे देवताओं का निवास है।

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http://www.punjabkesari.in/news/article-166708

  -पं. उमाशंकर शास्त्री 



गौ माता को सारे शास्त्रों में सर्वतीर्थमयी व मुक्तिदायिनी कहा गया है। गौ माता के शरीर में सारे देवताओं का निवास है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार गौ के पैरों में समस्त तीर्थ व गोबर में साक्षात माता लक्ष्मी का वास माना गया है। गौ माता के पैरों में लगी मिट्टी का जोव्यक्ति नित्य तिलक लगाता है, उसे किसी भी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसे सारा फल उसी समय वहीं प्राप्त हो जाता है।

जिस घर या मंदिर में गौ माता का निवास होता है, उस जगह को साक्षात देवभूमि ही कहा गया है और जिस घर में गौ माता नहीं होती, वहां कोई भी अनुष्ठान व सत्कार्य सफल नहीं होता। जहां गौ माता हो, यदि ऐसे स्थान पर कोई भी व्रत, जप, साधना, श्राद्ध, तर्पण, यज्ञ, नियम, उपवास या तप किया जाता है तो वह अनंत फलदायी होकर अक्षय फल देने वाला हो जाता है।

यह जरूर ध्यान रखने की बात है कि गौ से मतलब उस गाय से है, जो देवता के रूप में विराजमान गौ माता है। आज के दौर की देशी गाय को ही प्राचीन काल में ‘गौ’ नाम से कहा गया है। ‘जरसी’ गाय तो दूध देने वाली एक पशु के समान है। अत: गौ माता का तात्पर्य शुद्ध देशी गाय से ही है। यही कारण है कि आयुर्वेद में देशी गाय के ही दूध, दही और घी व अन्य तत्त्वों का प्रयोग होता है। 
   
वत्स द्वादशी की अनुपम महिमा 

गौ माता ही हमारी संस्कृति और धर्म में ऐसे देवता के रूप में प्रतिष्ठित है,जिनकी नित्य सेवा और दर्शन करने का विधान हमारे शास्त्रों ने किया है। वर्ष में दो बार दो बड़े पर्व गौ माता के उत्सव के रूप में ही मनाए जाते हैं। एक भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को और दूसरा कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को।

इन दोनों ही पर्वों का माहात्म्य शास्त्रों में इतना लिखा है कि इस दिन जिस घर की महिलाएं गौ माता का पूजन करती हैं, उस घर में माता लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है और अकाल मृत्यु कभी नहीं होती। भाद्रपद में द्वादशी को पडऩे वाले उत्सव को ‘वत्स द्वादशी’ या ‘बछ बारस’ कहते हैं।

पौराणिक आयान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बाद माता यशोदा ने इसी दिन गौ माता का दर्शन-पूजन किया था। ‘रामायण’ में भगवान श्रीराम इस दिन स्वयं अपने छोटे भाइयों व परिजनों के साथ गौ माता का पूजन करते थे। वहां स्पष्ट लिखा है कि भगवान श्रीराम ने यज्ञ के बाद दस लाख गौएं ब्राह्मणों को दान में दी थीं। भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं ही अपने मित्रों के साथ गाय चराने वनों में जाते थे।

वेद-पुराणों में गौ स्तवन 

वेदों में स्पष्ट लिखा है कि गौ रुद्रों की माता और वसुओं की पुत्री है। अदिति पुत्रों की बहन और घृतरूप अमृत का खजाना है। प्रत्येक ग्रंथ में यह बात दृढता के साथ लिखी गई है कि सदा निरपराध एवं अवध्य गौ माता का वध करना ऐसा पाप है, जिसका कोई प्रायश्चित्त ही नहीं है। जो पुण्य अश्वमेध या अनेक यज्ञों को करने से मिलता है, वह पुण्य मात्र गौ माता की सेवा करने से ही प्राप्त हो जाता है।

गौ का विश्वरूप 

वैदिक साहित्य के अनुसार प्रजापति गौ के सींग, इंद्र सिर, अग्नि ललाट और यम गले की संधि है। चंद्रमा मस्तिष्क, पृथ्वी जबड़ा, विद्युत जीभ, वायु दांत और देवताओं के गुरु बृहस्पति इसके अंग हैं। इस तरह यह स्पष्ट है कि गौ में सारे देवताओं का वास है। अत: जिन देवताओं का पूजन हम मंदिरों व तीर्थों में जाकर करते हैं वे सारे देवता समूह रूप से गौ माता में विराजमान हैं। इसलिए निर्लिप्त भाव से पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए व्यक्ति को नित्य गौ माता की सेवा करनी चाहिए। महाभारत कहता है-

यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु दीक्षया च लभेन्नर:।
तत्पुण्यं लभते सद्यो गोभ्यो दत्वा तृणानि च।।

अर्थात सारे यज्ञ करने में जो पुण्य है और सारे तीर्थ नहाने का जो फल मिलता है, वह फल गौ माता को चारा डालने से सहज ही प्राप्त हो जाता है। 

नित्य दें गौ ग्रास 

विष्णुधर्मोत्तरपुराण के अनुसार व्यक्ति के किसी भी अनिष्ट की निवृत्ति के लिए गौ माता के पूजन का विधान किया गया है। अनेक तरह के अरिष्टकारी भूचर, खेचर और जलचर आदि दुर्योग उस व्यक्ति को छू भी नहीं सकते जो नित्य या तो गौ माता की सेवा करता है या फिर रोज गौ माता के लिए चारे या रोटी का दान करता है। 

जो व्यक्ति प्रतिदिन भोजन से पहले गौ माता को ग्रास अर्पित करता है, वह सत्यशील प्राणी श्री, विजय और ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति प्रात:काल उठने के बाद नित्य गौ माता के दर्शन करता है, उसकी अकाल मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती, यह बात महाभारत में बहुत ही प्रामाणिकता के साथ कही गई है। 

ग्रहोपचार के लिए गौ पूजन 

धर्मशास्त्रों में गौ माता की महिमा भरी पड़ी है। जिस व्यक्ति को ग्रह बाधा हो या ग्रहों की प्रीति नहीं हो पा रही हो, उस व्यक्ति को सरल, सहज व सुलभ तरीके से प्राप्त गौ माता की नित्य सेवा करनी चाहिए। ज्योतिष शास्त्र में तो एक राशि ‘वृष’ का वर्ग ही गौ है। इसी तरह जिन लोगों की जन्मपत्री में धनु या मीन लग्न हो, उन्हें या जिनकी पत्री में बृहस्पति की महादशा या अंतर व प्रत्यंतर दशा चल रही हो उन्हें अनिवार्य रूप से गौ माता के दर्शन करने चाहिएं। 

बृहस्पति ग्रह के प्रसन्नार्थ रोज गाय को रोटी भी देनी चाहिए। यदि रोज संभव न हो सके तो प्रत्येक वीरवार को तो निश्चित रूप से गुड़ व रोटी गाय को खिलानी ही चाहिए। इसी तरह जिन जातकों की मेष व वृश्चिक राशि है, उन्हें हरेक मंगलवार को गौ माता को गुड़ और रोटी देनी चाहिए, इससे न केवल मंगल की पीड़ा शांत होती है, साथ ही यदि ऐसे लोग राजनीति क्षेत्र में होते हैं तो उन्हें राजनीतिक लाभ भी प्राप्त होता है।


वृद्धजनों को नित्य गौ माता का दर्शन करना चाहिए, इससे उन्हें शीघ्र ही मोक्षकारणभूत तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है।



धनु व मीन राशि वाले लोगों को व्यापारिक, राजनीतिक व पारिवारिक संकटों से बचने के लिए पीले रंग की गाय विधि-विधान के साथ वीरवार को किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को श्रद्धा के साथ दान करनी चाहिए। सिंह व कर्क राशि वाले लोगों को भी प्रतिदिन गौ माता को रोटी खिलानी चाहिए, इससे संतान पीड़ा व स्वास्थ्य कष्ट का शमन होता है। जब गौ माता को रोटी दें तो इस मंत्र का उच्चारण करें-

त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्।
त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।



                                             
                                                                                                                       

Thursday, November 27, 2014

रविवार को विष्णु प्रिया तुलसी को नहीं तोड़ना चाहिए - क्यो ?

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भारतीय संस्कृति में किसी भी कार्य को करने से पूर्व उस कार्य को कब और कैसे करना चाहिए, यह विचार किया जाता है, जिसे लोग मुहूर्त कहते हैं। मुहूर्त में काल के अवयवों के रूप में तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण आदि को महत्व दिया जाता है। इनमें से वार सर्वाधिक सुगम एवं सरल अवयव है, इसलिए इसे हर व्यक्ति अपने उपयोग में अपनी तरह लेता है और उसी अनुसार कार्य करने लगता है। सामान्यतया सात वारों में रवि, मंगल को क्रूर एवं शनि को अशुभ माना जाता है।

स्थापना एवं निर्माणादि वास्तु के कार्यों में शनि को शुभ माना जाता है। भारतीय परम्परा में किसी वृक्ष एवं पौधे को अपने उपयोग के लिए लगाना, काटना या उसके पत्ते लेना आदि इन सभी कार्यो को मुहूर्त में ही करने की लोक परम्परा थी और कहीं-कहीं अभी भी है। वैद्य भी मुहूर्त के अनुसार ही औषधीय वनस्पति को निकालते थे। मुहूर्त की जटिलता एवं मुहूर्त के सबके लिए सुगम व सुलभ न होने के कारण आज भी वार का ही उपयोग सामान्य लोग करते हैं। मुहूर्त के प्रधान अवयव तिथि-वार आदि सभी विष्णुरूप माने गए हैं। ‘तिथिर्विष्णुस्तथा वारं नक्षत्रं विष्णुरेव च। योगश्च करणं विष्णु: र्सव विष्णुमयं जगत।’ इनमें में रविवार भगवान विष्णु को सर्वाधिक प्रिय है, इसलिए रविवार को विष्णु प्रिया तुलसी को नहीं तोड़ना चाहिए, ऐसा विधान बना। कई जगहों पर क्रूर वार होने के कारण मंगलवार को भी तुलसी नहीं तोड़ते। मुहूर्त लोक पर अधिक आधारित एवं प्रचलित होते हैं, इसलिए तुलसी तोड़ने के सन्दर्भ में भी लोक की प्रधानता प्रचलित हुई।

सभी जगहों पर रविवार को तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए, यह धारणा प्रचलित नहीं है। जैसे विष्णु प्रधान धाम श्रीबद्रीनाथ एवं  जगन्नाथ में भगवान के पूजन एवं श्रृंगार में प्रतिदिन तुलसी का ही प्रयोग होता है। यहां पर प्रतिदिन तुलसी तोड़ी जाती है और भगवान का पूजन-श्रृंगार किया जाता है। हमारे शास्त्रों ने लोक के आधार पर आचरण की व्यवस्था बनाई है। शास्त्र से अधिक लोक को प्रधानता दी है।

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Wednesday, November 26, 2014

सम्मोहन --कब, क्यो और कैसे ?

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श्री श्रीकांत पाराशर जी का अद्भुत आलेख 


वीणा के तार यदि ढीले हो जाएं तो उससे कैसे स्वर निकलेंगे, यह कोई भी समझ सकता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य के जीवन को सुन्दर स्वर देने वाले सम्मोहन के तारों को ढीला छोड दिया जाए तो उसके जीवन संगीत की भी वही दशा होनी है जो ढीले तारों वाली वीणा से निकले संगीत की होती है। इसका कारण यह है कि सम्मोहन वह शक्ति है, वह कला ंहै जो मनुष्य के जीवन के सुरों को माधुर्य प्रदान करती है। दरअसल सम्मोहन क्या है यह तो ठीक से कोई दर्शन शास्त्र का ज्ञाता ही बता सकता है परन्तु मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि हम जो कुछ ंहैं, जो कुछ भी कर रहे हैं वह हमारी चित्त दशा है जिसे दूसरे शब्दों में सम्मोहन कहा जा सकता है। इसे और बोलचाल की भाषा में माया भी कहा जा सकता है। माया से वशीभूत होकर ही लोगों द्वारा जगत का निर्माण हुआ है और यह जगत पूरी जादूगरी है। कोई भी दार्शनिक शायद इस बात को इसी प्रकार से परिभाषित करेगा।
हमारे मन में किसी भी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति प्रगाढ भाव पैदा हो जाता है उसे सम्मोहन की ही संज्ञा दी जाएगी। यों तो यह गहन अध्ययन और चिंतन का विषय है परन्तु ऊपरी तौर पर भी इस मुद्दे पर ष्टिपात करें तो हमें कुछ न कुछ इससे हासिल हो सकता है।
सरल तरीके से सम्मोहन की बात करते हैं। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे कुछ पता नहीं होता कि उसका पिता कौन है, उसकी मां कौन है, घर परिवार में दादा-दादी, चाचा-ताऊ, भाई-बहिन कौन हैं। धीरे-धीरे उनके प्रति सम्मोहन के कारण वह सब कुछ समझता सीखता चला जाता है। अपने आप उसके मन के तार अपने माता-पिता व अन्य रिश्तेदारों से जुडने लगते हैं। यह तार सम्मोहन के तार होते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि यदि किसी बच्चे को कोई तकलीफ हो तो उसकी मां को उसका अहसास सैकडाें मील दूर रहते हुए भी हो जाता है क्योंकि बच्चे से मां का गहरा सम्मोहन होता है। हमने पुरानी फिल्मों में ऐसी कितनी ही कहानियां देखी हैं। आपने भी फिल्मों में, टीवी पर धारावाहिकों में, किताबों में ऐसी कहानियां देखी और पढी होंगी। ऐसा नहीं है कि इनमें असत्यता ही हो, कुछ काल्पनिक भी हो सकती हैं परन्तु बहुत से जानकारों ने तो इस मामले में प्रयोग भी करके देखे हैं। हम भी अपने दैनंदिन जीवन में इस सम्मोहन की अनुभूति करते हैं इसलिए इसकी विश्वनीयता पर भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता।



सम्मोहन से संबंधित एक तर्क किसी दार्शनिक के साहित्य में पढने को मिला था। बात में मुझे भी दम लगा। एक महिला कहीं मर जाए तो किसी व्यक्ति को उससे कोई पीडा नहीं होगी। ऐसी सैकडाें मौतें होती हैं। परन्तु यदि किसी व्यक्ति का विवाह हो गया, सात फेरे ले लिए, बैंड बाजे के साथ धूमधाम से बारात की आव भगत हुई, पंडित-पुरोहितों ने मंत्रोच्चारण किए, आशीर्वाद समारोह आयोजित हुआ और वही महिला एक सामान्य औरत की बजाय अब किसी की पत्नी हो गई। अब यदि वह मर जाती है तो व्यक्ति, यानी कि उसका पति छाती पीट-पीट कर रोता है क्योंकि अब वह महिला नहीं रह गई, पत्नी हो गई। अब वह सम्मोहन के सूत्र में बंध गई। यह बात अलग हो सकती है कि इस सम्मोहन को स्थापित करने में फेरों से लेकर आशीर्वाद समारोह तक के सभी कार्यक्रमों, गतिविधियों की अहम भूमिका होती हो परन्तु इस सम्मोहन के कारण ही एक व्यक्ति और एक महिला के बीच ऐसा बंधन बंध जाता है कि एक की हानि से दूसरे को कष्ट पहुंचता है। यह नहीं कहा जाना चाहिए कि सम्मोहन का तार केवल मां-बेटे के बीच में होता है। पति-पत्नी का उदाहरण ऊपर दिया ही है। इसी प्रकार मित्रों, रिश्तेदारों के बीच में भी यह सम्मोहन का जादू काम करता है। जहां भी संबंधों में निकटता है, मधुरता है, वहीं सम्मोहन का सेतु कायम है, तार बंधा हुआ है। जहां संबंधों में सम्मोहन कम हो रहा है वहीं रिश्ता में कटुता पैदा होने लगी है।
पहले यह बीमारी पश्चिमी देशों में ही थी। उधर से ही शुरुआत हुई। या तो वहां सम्मोहन था ही नहीं या फिर था तो जल्दी ही कम होने लगा और उसके परिणाम सामने आने लगे पिता-पुत्र के बीच झगडाें के रूप में, पति-पत्नी के बीच तलाक के रूप में, घनिष्ठ मित्रों के बीच हत्याओं की घटनाओं के रूप में। पूरब के देशों में एक पारिवारिक सम्मोहन था। अब उस सम्मोहन के तार ढीले होते दिखाई दे रहे हैं। पश्चिम के देशों में पिता पिट रहा हो तो बेटा उसे बचाने का तत्काल प्रयास नहंीं करता है। वह पहले सोचता है कि वास्तव में गलती किसकी है, बाप की या पीटने वाले की। बाप अपनी गलती के कारण पिट रहा हो तो बेटा उसे पिटने देता है, बचाता नहीं। हमारे देश में ऐसा भाव नहीं था। पिता-पुत्र के सम्मोहन के तार इस कदर जुडे रहते थे कि बाप की अगर गलती भी हो तब भी उसकी ओर कोई आंख उठाकर देखे तो बेटा अपनी जान देने को भी उतारू रहता था। मजाल है कि कोई बेटे के रहते हुए बाप को पीट दे।
  आज भी सम्मोहन के ये तार हमारे देश के लोगों में पूरी तरह से टूटे तो नहीं हैं परन्तु ढीले अवश्य पड ग़ए हैं। पिता-पुत्र के बीच तकरार, पति-पत्नी के बीच तलाक, भाई-भाई के बीच अविश्वास आदि के तेजी से पनपने का कारण ही ंहै कि इन रिश्तों के बीच जो सम्मोहन का सेतु है वह कमजोर हुआ है। सम्मोहन के तारों के ढीले होते चले जाने से भविष्य में हालात क्या होंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। आने वाले कुछ वर्षों में यदि पूरी तरह से पश्चिमी देशों का सा माहौल हमारे यहां भी निर्मित हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि यदि अंधी गुफा की ओर जाने वाली पगडंडी पर हम बढ चले हों और रास्ते में भी हम अपने दिमाग पर जोर नहीं डालें कि हम जिस रास्ते पर चल रहे ंहैं वह हमें कहां ले जाएगा, वह रास्ता हमारे लिए सही है या नहीं, उस पर और आगे बढने में हमारी भलाई है या नहीं, रास्ता बीच में छोड क़ोई दूसरी पगडंडी जो प्रकाश की ओर ले जाए उसको पकडना है  या नहीं, तब तो वह रास्ता उस अंधकूप तक ले ही जाएगा जहां तक ले जाने के लिए वह बना है। सोचना तो व्यक्ति को है कि जन्म के साथ ही जिस सम्मोहन के तारों ने जीवन को मधुर संगीत देने की शुरुआत की उसे ही छोड देना कहां की बुध्दिमानी है। जीवन के संगीत को सही ढंग से झंकृत करना है तो संबंधों के बीच ढीले होते सम्मोहन के तारों को कसना जरूरी है और इस कार्य के लिए परिस्थितियों के बिगडने का इंतजार नहीं करना चाहिए बल्कि तत्काल यह कार्य करना चाहिए। एक अच्छा संगीतज्ञ, एक अच्छा कलाकार तो अपने वाद्य के तारों को हमेशा दुरुस्त ही रखता है।


भृगु संहिता पद्धति:आकलन

Today's Blog - Article from -

http://drmanojjpr.blogspot.in/2011/04/blog-post_29.html



महर्षियों ने दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म प्रज्ञा, विस्तृत ज्ञान द्वारा शरीरस्थ सौर मंडल का अध्ययन, मनन, अन्वेषण, पर्यवेक्षण, अवलोकन तदनुसार आकाशीय सौर मंडल की व्यवस्था की। उन ग्रहों के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया। कालांतर में ज्योतिष विद्या का प्रचार‍ प्रसार हुआ। इस समय भृगु संहिता उपलब्ध नहीं है बल्कि भृगु संहिता के नाम से कुछ ग्रंथ यत्र ‍तत्र अपूर्ण प्राप्त हैं ।

जातक के भविष्य कथन को लेकर भृगुसंहिता जितना चर्चित ग्रंथ है, उतना ही विवादास्पद भी। कुछ दैवज्ञ तो इस तरह के किसी ग्रंथ को ही नकार देते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार, त्रिदेवों में कौन श्रेष्ठ है, इसकी परीक्षा के लिए जब महर्षि भृगु ने विश्वपालक श्रीविष्णु के वक्षस्थल पर प्रहार किया, तो पास बैठी विष्णुपत्नी, धनदेवी महालक्ष्मी ने भृगु को शाप दे दिया कि अब वे किसी ब्राह्मण के घर निवास नहीं करेंगी। परिणामस्वरूप सरस्वती पुत्र ब्राह्मण सदैव दरिद्र ही रहेंगे। अनुश्रुति है कि उस समय महर्षि भृगृ की रचना ‘ज्योतिष संहिता’ अपनी पूर्णता के अंतिम चरण पर थी, इसलिए उन्होंने कह दिया, ‘देवी लक्ष्मी, आपके कथन को यह ग्रंथ निरर्थक कर देगा।’ लेकिन महालक्ष्मी ने भृगु को सचेत किया कि इसके फलादेश की सत्यता आधी रह जाएगी। लक्ष्मी के इन वचनों ने भृगु के अहंकार को झकझोर दिया। वे लक्ष्मी को शाप दें, इससे पहले विष्णु ने भृगु से कहा, ‘महर्षि आप शांत हों! आप एक नए संहिता ग्रंथ की रचना करें। इस कार्य के लिए मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हूं।’ तब तक लक्ष्मी भी शांत हो गईं थीं। उन्हें ज्ञात हो गया था कि महर्षि ने पदप्रहार अपमान की दृष्टि से नहीं, परीक्षा के लिए किया था। विष्णु के कथनानुसार, भृगु ने जिस संहिता ग्रंथ की रचना की वही जगत में ‘भृगुसंहिता’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जातक के भूत, भविष्य और वर्तमान की संपूर्ण जानकारी देने वाला यह ग्रंथ भृगु और उनके पुत्र शुक्र के बीच हुए प्रश्नोत्तर के रूप में है ।
एक किंवदंती के अनुसार, लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व काठमांडू स्थित एक पुस्तकालय से इस संहिता के लगभग दो लाख पृष्ठों को एक ब्राह्मण हाथ से लिखकर होशियारपुर (पंजाब) के टूटो माजरा गांव आया था। वैसे होशियारपुर के कुछ ज्योतिषी असली भृगुसंहिता के अपने पास होने का दावा करते हैं। मान्यता है कि इस ग्रंथ में विश्व के प्रत्येक जातक की जन्मकुंडली है और यदि वह मिल जाती है, तो जातक के जीवन के तीनों कालों की जानकारी यथार्थ रूप में प्राप्त हो सकती है। बाजार में ‘भृगु संहिता’ नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध है, वह मूल संहिता ग्रंथ की एक झलक मात्र देते हैं। इनमें जन्मकुंडली में ग्रहों के योगों की संभावनाओं पर ही विशेषरूप से प्रकाश डाला गया है। इनमें कुंडली संख्या पंद्रह सौ से दो हजार तक है। कहते हैं कि इन कुंडलियों पर चिंतन-मनन करने से दैवज्ञ भविष्य फल कथन करने में निष्णात तो हो ही जाता है ! 



Tuesday, November 25, 2014

Ear protection(कानो की सुरक्षा)

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http://gurujifreemedicaltips.blogspot.in/p/ear-protection.html



कान के रोग

(1) बहरापन दूर करने के लिए
 :- बड़बादशाह के जल और मिट्टी को मिलकर रोज मस्तक पर तिलक करो और एक शंख लेकर उसको किसी बर्तन मे, पानी मे डूबकर रख दो जब भी प्यास लगे, या पानी पीना की इच्छा हो तो उसी शंख के पानी का प्रयोग करो
दूसरा प्रयोगः दशमूल, अखरोट अथवा कड़वी बादाम के तेल की बूँदें कान में डालने से बहरेपन में लाभ होता है।
गाय के ताजे गोमूत्र में एक चुटकी सेंधा नमक मिलाकर हर रोज कान में डालने से आठ दिनों में ही बहरेपन में फायदा होता है।
तीसरा प्रयोगः आकड़े के पके हुए पीले पत्ते को साफ करके उस पर सरसों का तेल लगाकर गर्म करके उसका रस निकालकर दो-तीन बूँद हररोज सुबह-शाम कान में डालने से बहरेपन में फायदा होता है।
चौथा प्रयोगः करेले के बीज और उतना ही काला जीरा मिलाकर पानी में पीसकर उसका रस दो-तीन बूँद दिन में दो बार कान में डालने से बहरेपन में फायदा होता है।
पाँचवाँ प्रयोगः कम सुनाई देता हो तो कान में पंचगुण तेल की 3-3 बूँद दिन में तीन बार डालें। औषधि में सारिवादि वटी 2-2 गोली सुबह, दोपहर तथा रात को लें। कब्ज न रहने दें। भोजन में दही, केला, फल व मिठाई न लें।

(2) कान में पीब(मवाद) होने परः- पहला प्रयोगः फुलाये हुए सुहागे को पीसकर कान में डालकर ऊपर से नींबू के रस की बूँद डालने से मवाद निकलना बंद होता है।
मवाद यदि सर्दी से है तो सर्दी मिटाने के उपाय करें। साथ में सारिवादी वटी 1 से 3 गोली दिन में दो बार व त्रिफला गुग्गल 1 से 3 गोली दिन में तीन बार सेवन करना चाहिए।
दूसरा प्रयोगः शुद्ध सरसों या तिल के तेल में लहसुन की कलियों को पकाकर 1-2 बूँद सुबह-शाम कान में डालने से फायदा होता है।


(3) कान का दर्दः अदरक का रस कान में डालने से कान के दर्द, बहरेपन एवं कान के बंद होने पर लाभ होता है।

(4) कान में आवाज होने परः लहसुन एवं हल्दी को एकरस करके कान में डालने पर लाभ होता है। कान बंद होने पर भी यह प्रयोग हितकारक है।

(5) कान में कीड़े जाने परः दीपक के नीचे का जमा हुआ तेल अथवा शहद या अरण्डी का तेल या प्याज का रस कान में डालने पर कीड़े निकल जाते हैं।

(6) कान के सामान्य रोगः सरसों या तिल के तेल में तुलसी के पत्ते डालकर धीमी आँच पर रखें। पत्ते जल जाने पर उतारकर छान लें। इस तेल की दो-चार बूँदें कान में डालने से सभी प्रकार के कान-दर्द में लाभ होता है।


Eyes protection ( आँखों की सुरक्षा)

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(1)आँखों से पानी आना :- आँखों से पानी आता हो तो सूखे धनिये का काड़ा २-२ बूंद आँखों में डाल लीजिये, आँखों
से पानी आना बंद हो जायेगा ।
(2) मोतियाबिंद :- प्रतिदिन सुबह-शाम आँखों में पिसी सरसों का तेल उंगली से लगायें । इससे
आँखें निरोग रहेंगी , मोतियाबिंद नहीं होगा और दृष्टि साफ़ रहेगी ।
- मोतियाबिंद में छोटी मक्खी का असली शहद और देसी हरे आंवलों का रस बराबर-बराबर मिलाकर एक साफ़ शीशी में रख लें और सुबह-शाम आँख में नियमित रूप से
डालें ।
(3)नेत्रज्योति बढ़ाने के लिएः- पहला प्रयोगः इन्द्रवरणा (बड़ी इन्द्रफला) के फल को काटकर अंदर से बीज निकाल दें। इन्द्रवरणा की फाँक को रात्रि में सोते समय लेटकर आँख के ऊपर ललाट पर बाँध दें। आँख में उसका पानी न जाये, यह सावधानी रखें। इस प्रयोग से नेत्रज्योति बढ़ती है।
दूसरा प्रयोगः त्रिफला चूर्ण को रात्रि में पानी में भीगोकर, सुबह छानकर उस पानी से आँखें धोने से नेत्रज्योति बढ़ती है।
तीसरा प्रयोगः जलनेति करने से नेत्रज्योति बढ़ती है। इससे आँख, नाक, कान के समस्त रोग मिट जाते हैं। (आश्रम से प्रकाशित 'योगासन' पुस्तक में जलनेति का संपूर्ण विवरण दिया गया है।)
(4)सौंधी (रात को न दिखना) (Night Blindness)- पहला प्रयोगः बेलपत्र का 20 से 50 मि.ली. रस पीने और 3 से 5 बूँद आँखों से आँजने से रतौंधी रोग में आराम होता है।
दूसरा प्रयोगः श्याम तुलसी के पत्तों का दो-दो बूँद रस 14 दिन तक आँखों में डालने से रतौंधी रोग में लाभ होता है। इस प्रयोग से आँखों का पीलापन भी मिटता है।
तीसरा प्रयोगः 1 से 2 ग्राम मिश्री तथा जीरे को 2 से 5 ग्राम गाय के घी के साथ खाने से एवं लेंडीपीपर को छाछ में घिसकर आँजने से रतौंधी में फायदा होता है।
चौथा प्रयोगः जीरा, आँवला एवं कपास के पत्तों को समान मात्रा में लेकर पीसकर सिर पर 21 दिन तक पट्टी बाँधने से लाभ होता है।
(5) आँखों का पीलापनः रात्रि में सोते समय अरण्डी का तेल या शहद आँखों में डालने से आँखों की सफेदी बढ़ती है।
आँखों की लालिमाः आँवले के पानी से आँखें धोने से या गुलाबजल डालने से लाभ होता है।
दूसरा प्रयोगः जामफल के पत्तों की पुल्टिस बनाकर (20-25 पत्तों को पीसकर, टिकिया जैसी बनाकर, कपड़े में बाँधकर) रात्रि में सोते समय आँख पर बाँधने से आँखों का दर्द मिटता है, सूजन और वेदन दूर होती है।
तीसरा प्रयोगः हल्दी को डली को तुअर की दाल में उबालकर, छाया में सुखाकर, पानी में घिसकर सूर्यास्त से पूर्व दिन में दो बार आँख में आँजने से आँखों की लालिमा, झामर एवं फूली में लाभ होता है।

(6) आँखों का कालापनः आँखों के नीचे के काले हिस्से पर सरसों के तेल की मालिश करने से तथा सूखे आँवले एवं मिश्री का चूर्ण समान मात्रा में 1 से 5 ग्राम तक सुबह-शाम पानी के साथ लेने से आँखों के पास के काले दाग दूर होते हैं।

(7) आँखों की गर्मी या आँख आने परः नींबू एवं गुलाबजल का समान मात्रा का मिश्रण एक-एक घण्टे के अंतर से आँखों में डालने से एवं हल्का-हल्का सेंक करते रहने से एक दिन में ही आयी हुई आँखें ठीक होती हैं।

(8) आँख की अंजनी (मुहेरी या बिलनी) (Stye)- हल्दी एवं लौंग को पानी में घिसकर गर्म करके अथवा चने की दाल को पीसकर पलकों पर लगाने से तीन दिन में ही गुहेरी मिट जाती है।

(9) आँख में कचरा जाने परः पहला प्रयोगः सौ ग्राम पानी में एक नींबू का रस डालकर आँखे धोने से कचरा निकल जाता है। दूसरा प्रयोगः आँख में चूना जाने पर घी अथवा दही का तोर (पानी) आँजें।

(10) आँख दुखने परः गर्मी की वजह से आँखें दुखती हो तो लौकी को कद्दूकस करके उसकी पट्टी बाँधने से लाभ होता है।

(11) आँखों से पानी बहने परः पहला प्रयोगः आँखें बन्द करके बंद पलको पर नीम के पत्तों की लुगदी रखने से लाभ होता है। इससे आँखों का तेज भी बढ़ता है।
दूसरा प्रयोगः रोज जलनेति करें। 15 दिन तक केवल उबले हुए मूँग ही खायें। त्रिफला गुगल की 3-3 गोली दिन में तीन बार चबा-चबाकर खायें तथा रात्रि को सोते समय त्रिफला की तीन गोली गर्म पानी के साथ सेवन करें। बोरिक पावडर के पानी से आँखें धोयें इससे लाभ होता है।

(12) मोतियाबिंद (Cataract) एवं झामर (तनाव)- पहला प्रयोगः पलाश (टेसू) का अर्क आँखों में डालने से नये मोतियाबिंद में लाभ होता है। इससे झामर में भी लाभ होता है।
दूसरा प्रयोगः गुलाबजल में विषप्रखरा (पुनर्नवा) घिसकर आँजने से झामर में लाभ होता है।

(13) चश्मा उतारने के लिएः पहला प्रयोगः छः से आठ माह तक नियमित जलनेति करने से एक पाँव के तलवों तथा कनपटी पर गाय का घी घिसने से लाभ होता है।
दूसरा प्रयोगः 7 बादाम, 5 ग्राम मिश्री और 5 ग्राम सौंफ दोनों को मिलाकर उसका चूर्ण बनाकर रात्रि को सोने से पहले दूध के साथ लेने से नेत्रज्योति बढ़ती है।
तीसरा प्रयोगः एक चने के दाने जितनी फिटकरी को सेंककर सौ ग्राम गुलाबजल में डालें और प्रतिदिन रात्रि को सोते समय इस गुलाबजल में डालें और प्रतिदिन रात्रि को सोते समय इस गुलाबजल की चार-पाँच बूँद आँखों में डालकर आँखों की पुतलियों को इधर-उधर घुमायें। साथ ही पैरों के तलुए में आधे घण्टे तक घी की मालिश करें। इससे आँखों के चश्मे के नंबर उतारने में सहायता मिलती है तथा मोतियाबिंद में लाभ होता है।

(14) सर्वप्रकार के नेत्ररोगः पहला प्रयोगः पैर के तलवे तथा अँगूठे की सरसों के तेल से मालिश करने से नेत्ररोग नहीं होते।
दूसरा प्रयोगः ॐ अरुणाय हूँ फट् स्वाहा। इस मंत्र के जप के साथ-साथ आँखें धोने से अर्थात् आँख में धीरे-धीरे पानी छाँटने से असह्य पीड़ा मिटती है।
तीसरा प्रयोगः हरड़, बहेड़ा और आँवला तीनों को समान मात्रा में लेकर त्रिफलाचूर्ण बना लें। इस चूर्ण की 2 से 5 ग्राम मात्रा को घी एवं मिश्री के साथ मिलाकर कुछ महीनों तक सेवन करने से नेत्ररोग में लाभ होता है।

(15) आँखों की सुरक्षाः रात्रि में 1 से 5 ग्राम आँवला चूर्ण पानी के साथ लेने से, हरियाली देखने तथा कड़ी धूप से बचने से आँखों की सुरक्षा होती है।
(16) आँखों की सुरक्षा का मंत्रः
ॐ नमो आदेश गुरु का... समुद्र... समुद्र में खाई... मर्द(नाम) की आँख आई.... पाकै फुटे न पीड़ा करे.... गुरु गोरखजी आज्ञा करें.... मेरी भक्ति.... गुरु की भक्ति... फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।नमक की सात डली लेकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए सात बार झाड़ें। इससे नेत्रों की पीड़ा दूर हो जाती है।

(17) नेत्ररोगों के लिए चाक्षोपनिषद् :- 

ॐ अस्याश्चाक्षी विद्यायाः अहिर्बुधन्य ऋषिः। गायत्री छंद। सूर्यो देवता। चाक्षुरोगनिवृत्तये जपे विनियोगः।

ॐ इस चाक्षुषी विद्या के ऋषि अहिर्बुधन्य हैं। गायत्री छंद है। सूर्यनारायण देवता है। नेत्ररोग की निवृत्ति के लिए इसका जप किया जाता है। यही इसका विनियोग है।.

ॐ चक्षुः चक्षुः तेज स्थिरो भव। मां पाहि पाहि। त्वरित चक्षुरोगान् शमय शमय। मम जातरूपं तेजो दर्शय दर्शय। यथा अहं अन्धो न स्यां तथा कल्पय कल्पय। कल्याणं कुरु करु।
याति मम पूर्वजन्मोपार्जितानि चक्षुः प्रतिरोधकदुष्कृतानि सर्वाणि निर्मूल्य निर्मूल्य। ॐ नमः करुणाकराय अमृताय। ॐ नमः सूर्याय। ॐ नमः भगवते सूर्यायाक्षि तेजसे नमः।
खेचराय नमः। महते नमः। रजसे नमः। तमसे नमः। असतो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। उष्णो भगवांछुचिरूपः। हंसो भगवान शुचिरप्रति तेजसे नमः।
ये इमां चाक्षुष्मती विद्यां ब्राह्मणो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति। न तस्य कुले अन्धो भवति।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा विद्या-सिद्धिर्भवति। ॐ नमो भगवते आदित्याय अहोवाहिनी अहोवाहिनी स्वाहा।


ॐ हे सूर्यदेव ! आप मेरे नेत्रों में नेत्रतेज के रूप में स्थिर हों। आप मेरा रक्षण करो, रक्षण करो। शीघ्र मेरे नेत्ररोग का नाश करो, नाश करो। मुझे आपका स्वर्ण जैसा तेज दिखा दो, दिखा दो। मैं अन्धा न होऊँ, इस प्रकार का उपाय करो, उपाय करो। मेरा कल्याण करो, कल्याण करो। मेरी नेत्र-दृष्टि के आड़े आने वाले मेरे पूर्वजन्मों के सर्व पापों को नष्ट करो, नष्ट करो। ॐ (सच्चिदानन्दस्वरूप) नेत्रों को तेज प्रदान करने वाले, दिव्यस्वरूप भगवान भास्कर को नमस्कार है। ॐ करुणा करने वाले अमृतस्वरूप को नमस्कार है। ॐ भगवान सूर्य को नमस्कार है। ॐ नेत्रों का प्रकाश होने वाले भगवान सूर्यदेव को नमस्कार है। ॐ आकाश में विहार करने वाले भगवान सूर्यदेव को नमस्कार है। ॐ रजोगुणरूप सूर्यदेव को नमस्कार है। अन्धकार को अपने अन्दर समा लेने वाले तमोगुण के आश्रयभूत सूर्यदेव को मेरा नमस्कार है।
हे भगवान ! आप मुझे असत्य की ओर से सत्य की ओर ले चलो। अन्धकार की ओर से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु की ओर से अमृत की ओर ले चलो।
उष्णस्वरूप भगवान सूर्य शुचिस्वरूप हैं। हंसस्वरूप भगवान सूर्य शुचि तथा अप्रतिरूप हैं। उनके तेजोमय रूप की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है।
जो कोई इस चाक्षुष्मती विद्या का नित्य पाठ करता है उसको नेत्ररोग नहीं होते हैं, उसके कुल में कोई अन्धा नहीं होता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का दान करने पर यह विद्या सिद्ध हो जाती है।

चाक्षुषोपनिषद् की पठन-विधिः

श्रीमत् चाक्षुषीपनिषद् यह सभी प्रकार के नेत्ररोगों पर भगवान सूर्यदेव की रामबाण उपासना है। इस अनुभूत मंत्र से सभी नेत्ररोग आश्चर्यजनक रीति से अत्यंत शीघ्रता से ठीक होते हैं। सैंकड़ों साधकों ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया है।
सभी नेत्र रोगियों के लिए चाक्षुषोपनिषद् प्राचीन ऋषि मुनियों का अमूल्य उपहार है। इस गुप्त धन का स्वतंत्र रूप से उपयोग करके अपना कल्याण करें।
शुभ तिथि के शुभ नक्षत्रवाले रविवार को इस उपनिषद् का पठन करना प्रारंभ करें। पुष्य नक्षत्र सहित रविवार हो तो वह रविवार कामनापूर्ति हेतु पठन करने के लिए सर्वोत्तम समझें। प्रत्येक दिन चाक्षुषोपनिषद् का कम से कम बारह बार पाठ करें। बारह रविवार (लगभग तीन महीने) पूर्ण होने तक यह पाठ करना होता है। रविवार के दिन भोजन में नमक नहीं लेना चाहिए।
प्रातःकाल उठें। स्नान आदि करके शुद्ध होवें। आँखें बन्द करके सूर्यदेव के सामने खड़े होकर भावना करें कि 'मेरे सभी प्रकार के नेत्ररोग भी सूर्यदेव की कृपा से ठीक हो रहे हैं।' लाल चन्दनमिश्रित जल ताँबे के पात्र में भरकर सूर्यदेव को अर्घ्य दें। संभव हो तो षोडशोपचार विधि से पूजा करें। श्रद्धा-भक्तियुक्त अन्तःकरण से नमस्कार करके 'चाक्षुषोपनिषद्' का पठन प्रारंभ करें।
इस उपनिषद का शीघ्र गति से लाभ लेना हो तो निम्न वर्णित विधि अनुसार पठन करें-
नेत्रपीड़ित श्रद्धालु साधकों को प्रातःकाल जल्दी उठना चाहिए। स्नानादि से निवृत्त होकर पूर्व की ओर मुख करके आसन पर बैठें। अनार की डाल की लेखनी व हल्दी के घोल से काँसे के बर्तन में नीचे वर्णित बत्तीसा यंत्र लिखें-

8 15 2 7
6 3 12 11
14 9 8 1
4 5 10 13
मम चक्षुरोगान् शमय शमय।

बत्तीसा यंत्र लिखे हुए इस काँसे के बर्तन को ताम्बे के चौड़े मुँहवाले बर्तन में रखें। उसको चारों ओर घी के चार दीपक जलावें और गंध पुष्प आदि से इस यंत्र की मनोभाव से पूजा करें। पश्चात् हल्दी की माला से 'ॐ ह्रीं हंसः' इस बीजमंत्र की छः माला जपें। पश्चात् 'चाक्षुषोपनिषद्' का बारह बार पाठ करें। अधिक बार पढ़ें तो अति उत्तम। 'उपनिषद्' का पाठ होने के उपरान्त 'ॐ ह्रीं हंसः' इस बीजमंत्र की पाँच माला फिर से जपें। इसके पश्चात सूर्य को श्रद्धापूर्वक अर्घ्य देकर साष्टांग नमस्कार करें। 'सूर्यदेव की कृपा से मेरे नेत्ररोग शीघ्रातिशीघ्र नष्ट होंगे – ऐसा विश्वास होना चाहिए।
इस पद्धति से 'चाक्षुषोपनिषद्' का पाठ करने पर इसका आश्चर्यजनक, अलौकिक प्रभाव तत्काल दिखता है।