Wednesday, June 11, 2014

उलटा नाम जपत जग जाना, वाल्मीक भए ब्रह्म समाना



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सोलह कलाओं से युक्त शरद पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वाल्मीकि का जन्म हुआ था। महर्षि वाल्मीकि आदिकवि के रुप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत मे रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है। वाल्मीकि रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता है और जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन है, के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियां प्रचलित है जिसके अनुसार उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता है जबकि वास्तविकता इसके विरुद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं के द्वारा हिंदू संस्कृति को भुला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम ‘अग्निशर्मा’ एवं ‘रत्नाकर’ थे।
किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहां का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिये जीवन यापन का मुख्य साधन था। हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिये सामान्य बात थी। उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े, और दस्युकर्म में लिप्त हो गये।
युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेक संतानों के पिता बन गये। परिवार में वृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिये वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे। एक दिन इनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारदजी से कहा कि तुम्हारे पास जो कुछ है उसे निकाल कर रख दो नहीं तो तुम्हें जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।
देवर्षि नारद ने कहा, ”मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अलावा कुछ और नहीं है? तुम लेना चाहो तो इसे ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो?’ देवर्षि की कोमल वाणि सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा, ‘भगवन मेरी आजीविका का यही साधन है और इससे ही मैं अपने परिवार का भरण पोषण करता हूं।’ देवर्षि बोले, तुम अपने परिवार वालों से जाकर पूछो कि वह तुम्हारे द्वारा केवल भरण पोषण के अधिकारी हैं या फिर तुम्हारे पाप कर्मों में भी हिस्सा बंटाएंगे। तुम विश्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे। वाल्मीकि ने जब घर आकर परिजनों से उक्त प्रश्न पूछा तो सभी ने कहा कि यह तुम्हारा कर्तव्य है कि हमारा भरण पोषण करो हम तुम्हारे पाप कर्मों में क्यों भागीदार बनें।
परिजनों की बात सुनकर वाल्मीकि को आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। वह जंगल पहुंचे और वहां जाकर देवर्षि नारद को बंधनों से मुक्त किया तथा विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े और अपने पापों का प्रायश्चित करने का उपाय पूछा। नारदजी ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए राम नाम के जप की सलाह दी। लेकिन चूंकि वाल्मीकि ने भयंकर अपराध किये थे इसलिए वह राम राम का उच्चारण करने में असमर्थ रहे तब नारदजी ने उन्हें मरा मरा उच्चारण करने को कहा। बार बार मरा मरा कहने से राम राम का उच्चारण स्वतः ही हो जाता है।
नारदजी का आदेश पाकर वाल्मीकि नाम जप में लीन हो गये। हजारों वर्षों तक नाम जप की प्रबल निष्ठा ने उनके संपूर्ण पापों को धो दिया। उनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना दी। दीमकों के घर को वल्मीक कहते हैं। उसमें रहने के कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। ये लौकिक छंदों के आदि कवि हुए। इन्होंने ही रामायण रूपी आदि काव्य की रचना की। वनवास के समय भगवान श्रीराम ने इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीताजी ने अपने वनवास का अंतिम समय इनके आश्रम में बिताया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि बन गये।
शिक्षा और महर्षि वाल्मीकि : महर्षि वाल्मीकि आदि कवि के साथ एक आदर्श और संपूर्ण शिक्षक भी थे। उन्होंने लव और कुश को शस्त्र और शास्त्रों की शिक्षा प्रदान की  थी। उनका शिक्षा प्रदान करने का तरीका इतनी प्रभावी था कि इन दोनों राजकुमारों ने  छोटी सी उम्र में ही  असाधारण कुशलता हासिल की। इन दोनों राजकुमारों की शस्त्र कुशलता का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि रणक्षेत्र में लक्ष्मण और महावीर हनुमान भी इनके सामने टिक नहीं पाए। अंततः भगवान राम को स्वयं युद्धक्षेत्र  में उतरना पड़ा। महर्षि वाल्मीकि की अद्भुत शिक्षा के कारण लव,कुश शस्त्रों के अतिरिक्त वेद-वेदांगो में भी पारंगत थे। यहां तक कि संगीत की विधा में भी ये राजकुमार अतुलनीय बन गए थे। रामदरबार में माता सीता की दारूण कथा के संगीतपूर्ण वर्णन ने सभी को आत्मावलोकन के लिए विवश कर दिया था। राजदरबार में सीता के साथ हुए अन्याय पर सभी का ध्यान गया। प्रजा में भी सीता की घर वापसी को लेकर बहस छिड़ी।  सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संगीत के इतने प्रभावी इस्तेमाल का उदाहरण पूरी दुनिया में अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। सामाजिक अन्याय के  खिलाफ संगीत को जनजागरण के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि ने ही दी थी।
काव्य प्रस्फुटन का प्रसंग :  महर्षि वाल्मीकि अपने भीतर निहित काव्य प्रतिभा से पूरी तरह अपरिचित थे। एक रोचक प्रसंग के कारण वह अपनी इस प्रतिभा से परिचित हुए। कथा के अनुसार भगवान वाल्मीकि नित्यप्रति गंगा स्नान करने जाते थे। एक दिन वह अपने शिष्य महर्षि भारद्वाज के साथ गंगा-स्नान करने गए और निर्मल जलधारा को देखकर एक निश्चित स्थान पर स्नान करने का निर्णय लिया। जलधारा में उतरते समय वह क्रामक्रीड़ा में रत सारस के एक जोड़े को देखकर मन ही मन प्रसन्न हुए। इसी समय,एक बहेलिए द्वारा चलाए गए  तीर के  लगने से नर सारस की मौके पर ही मृत्यु हो गई। महर्षि को यह दृश्य देखकर बहुत आघात लगा। तीर चलाने वाला बहेलिया कुछ ही दूरी पर खड़ा था। उसको देखते ही महर्षि के मुख से यकायक यह श्लोक निकल आया -
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्त्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥
अर्थात अरे बहेलिए, तूने काम मोहित होकर मैथुनरत क्त्रौंच पक्षी को मारा है, अब तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी।  ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य “रामायण” (जिसे कि “वाल्मीकि रामायण” के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य “रामायण” में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने वनवास काल के मध्य “राम” वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे-देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब “राम” ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया था। उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि “राम” के समकालीन थे तथा उनके जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था। उन्हें “राम” का चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य “रामायण” की रचना की। भारत में उदात्त सामाजिक मूल्यों  की स्थापना में इस ग्रंथ की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।

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